अंधेर नागरी, अँधा राजा,
सब आँखों वाले, पर न दिखता कोई बन्दा,
सब अंधे! रब अंधा!
संसार है एक गोरखधंधा!
Wednesday, June 20, 2007
Saturday, June 2, 2007
मेरा खुदा कोई नही।
आये थे दिल्ली की गलियों में अकेले हम,
साथ न यार , न दोस्त, था अपना सगा कोई नही,
खुले आस्मान के साये में, बस मैं और मेरे अरमान,
दिन में दफ्तरों से बातें,
रात में सितारों से नक्श-ए-बयाँ होता।
कोई हँसता, कोई दुत्कार देता,
अजनाबी शहर की जमांना-ए-वफ़ा कोई नही।
ये कैसी थी आवाज़, जो सन्नाटों में खोई नही,
पल में बिखरे फर्श पे ,
चुभते हैं ये अरमानों के टुकड़े,
ख़ून के छीँटे थे हर दिवार पर,
जब क़त्ल हुआ मेरा , तब था मेरा खुदा कोई नही।
साथ न यार , न दोस्त, था अपना सगा कोई नही,
खुले आस्मान के साये में, बस मैं और मेरे अरमान,
दिन में दफ्तरों से बातें,
रात में सितारों से नक्श-ए-बयाँ होता।
कोई हँसता, कोई दुत्कार देता,
अजनाबी शहर की जमांना-ए-वफ़ा कोई नही।
ये कैसी थी आवाज़, जो सन्नाटों में खोई नही,
पल में बिखरे फर्श पे ,
चुभते हैं ये अरमानों के टुकड़े,
ख़ून के छीँटे थे हर दिवार पर,
जब क़त्ल हुआ मेरा , तब था मेरा खुदा कोई नही।
Sunday, April 15, 2007
मैं जन्म, जीवन व मृत्यु का आधार चाहता हूँ ।
मैं जन्म, जीवन व मृत्यु का आधार चाहता हूँ ।
मैं भारत भूमी पर जन्म बारम्बार चाहता हूँ ।
विश्व का तिलक,
भूमी का आभूषण,
मतृत्व का भूषन,
और भारत का चहुमुखी विस्तार चाहता हूँ ।
मैं जन्म, जीवन व मृत्यु का आधार चाहता हूँ ।
लोगों का कोमल स्नेह,
वृधों का आशीर्वाद,
गॉव की हरियाली,
शहर की आकर,
और भारत माता का प्यार चाहता हूँ ।
हिमालय की ऊंचाई,
मानवता की गहराई,
गंगा की पवित्रता,
आत्म की स्वच्छता,
और भारत भूमि पर जन्म लेकर,
अपना उद्धार चाहता हूँ।
मैं जन्म, जीवन व मृत्यु का आधार चाहता हूँ ।
सत्य का आकाश,
भारत का विकास ,
मानवता का प्रकाश,
और इस धर्मनिरपेक्ष भूमि पर ईश्वर का वास चाहता हूँ।
मैं भारतीयता का सम्मान ,
बहुमुखी संकृति का आंचा,
की सौंधी खुशबु
माता की चरण धूलि चाहता हूँ,
मैं जन्म, जीवन व मृत्यु का आधार चाहता हूँ ।
मैं भारत भूमी पर जन्म बारम्बार चाहता हूँ ।
विश्व का तिलक,
भूमी का आभूषण,
मतृत्व का भूषन,
और भारत का चहुमुखी विस्तार चाहता हूँ ।
मैं जन्म, जीवन व मृत्यु का आधार चाहता हूँ ।
लोगों का कोमल स्नेह,
वृधों का आशीर्वाद,
गॉव की हरियाली,
शहर की आकर,
और भारत माता का प्यार चाहता हूँ ।
हिमालय की ऊंचाई,
मानवता की गहराई,
गंगा की पवित्रता,
आत्म की स्वच्छता,
और भारत भूमि पर जन्म लेकर,
अपना उद्धार चाहता हूँ।
मैं जन्म, जीवन व मृत्यु का आधार चाहता हूँ ।
सत्य का आकाश,
भारत का विकास ,
मानवता का प्रकाश,
और इस धर्मनिरपेक्ष भूमि पर ईश्वर का वास चाहता हूँ।
मैं भारतीयता का सम्मान ,
बहुमुखी संकृति का आंचा,
की सौंधी खुशबु
माता की चरण धूलि चाहता हूँ,
मैं जन्म, जीवन व मृत्यु का आधार चाहता हूँ ।
Sunday, April 8, 2007
देशप्रेम! एक विडम्बना है ।
वह जो भावों से परिपूर्ण भवन के आधार की कल्पना है
आज के युग में आभावों से परिपक्वा मानव की विडम्बना है ।
कण- कण भावहीन है,
फिर भी भावों के प्रभाव का ही नाम जपना है ।
शरीर, मन , आत्म सब परायी है,
केवल धन ही अपना है
भ्रष्टाचार में लिप्त!
आत्म की आवाजों को सुनना, एक पागलपन है ।
सत्य, अहिंसा , प्रेम नही आज के आदर्श,
बल्कि लोभ, लालच और कमाना है।
मन में विदेश सुख की आस है,
और पराया देश ही अपना है ।
ओ ! धनवृष्ती को आतुर नयन,
देशप्रेम केवल एक विडम्बना है।
दिनांक : १३ जून १९९९ ।
आज के युग में आभावों से परिपक्वा मानव की विडम्बना है ।
कण- कण भावहीन है,
फिर भी भावों के प्रभाव का ही नाम जपना है ।
शरीर, मन , आत्म सब परायी है,
केवल धन ही अपना है
भ्रष्टाचार में लिप्त!
आत्म की आवाजों को सुनना, एक पागलपन है ।
सत्य, अहिंसा , प्रेम नही आज के आदर्श,
बल्कि लोभ, लालच और कमाना है।
मन में विदेश सुख की आस है,
और पराया देश ही अपना है ।
ओ ! धनवृष्ती को आतुर नयन,
देशप्रेम केवल एक विडम्बना है।
दिनांक : १३ जून १९९९ ।
मेरा भविष्य !
मेरे मन की अनुभूति,
मेरी आशाओं की रेखाकृती,
सफल मुक्त सा आभास,
मेरी कल्पना, मेरा विश्वास,
यूँही, सपनो के आकाश में,
मिला मैं आज अपने भविष्य से ।
नन्हा सा, कोमल सा,
पलता मेरे मन में ,
जैसे आजन्म शिशु हो मतृ तन में,
ढूँढता - खोजता अपने आकर को,
मन की गहराई में,
लालसा की तनहाई में,
मेरा भविष्य, वो मेरा कल!
आवाज़ में कम्पन,
माथे पे शिकन,
चमकता सर, लटकती उदर,
ढलती उमर, झूलती क़मर ,
ये तो बस एक झलक थी,
और डरने को बहुत था बाकी,
यूँही! मिला मैं आज मिल अपने भविष्य से ।
वोही दिन, वोही रात,
वोही धरती, वोही आकाश,
बस सारी दुनिया ही बदल गयी!
वो बचपन की प्यारी दुनिया,
बस यादों में है हमारी दुनिया ,
यूँही , बस यूँही ।
मेरा बस एक सवाल "क्या तुम खुश हो?",
और जवाब में वो चिन्ता के अम्बार,
आज भी व्याकुल हूँ, कल भी चिंतित होऊंगा ।
मेरा भविष्य मैंने ऐसा तो ना सोचा है ।
यूँही, आज मिल मैं अपने भविष्य से।
दिनांक : ७ मई २००२ ।
मेरी आशाओं की रेखाकृती,
सफल मुक्त सा आभास,
मेरी कल्पना, मेरा विश्वास,
यूँही, सपनो के आकाश में,
मिला मैं आज अपने भविष्य से ।
नन्हा सा, कोमल सा,
पलता मेरे मन में ,
जैसे आजन्म शिशु हो मतृ तन में,
ढूँढता - खोजता अपने आकर को,
मन की गहराई में,
लालसा की तनहाई में,
मेरा भविष्य, वो मेरा कल!
आवाज़ में कम्पन,
माथे पे शिकन,
चमकता सर, लटकती उदर,
ढलती उमर, झूलती क़मर ,
ये तो बस एक झलक थी,
और डरने को बहुत था बाकी,
यूँही! मिला मैं आज मिल अपने भविष्य से ।
वोही दिन, वोही रात,
वोही धरती, वोही आकाश,
बस सारी दुनिया ही बदल गयी!
वो बचपन की प्यारी दुनिया,
बस यादों में है हमारी दुनिया ,
यूँही , बस यूँही ।
मेरा बस एक सवाल "क्या तुम खुश हो?",
और जवाब में वो चिन्ता के अम्बार,
आज भी व्याकुल हूँ, कल भी चिंतित होऊंगा ।
मेरा भविष्य मैंने ऐसा तो ना सोचा है ।
यूँही, आज मिल मैं अपने भविष्य से।
दिनांक : ७ मई २००२ ।
Friday, March 30, 2007
पलकों की पगडंडियों पर |
उमड़ पड़ी है यादें फिर समय सीमायें लाँघ ,
बंद हो पलकें , है मिलन की ये मांग ,
क्योंकि फिर देखा है तुम्हें ,
पलकों की पगडंडियों पर
दबे पैर , हाँथ लिए प्रेम चिराग,
छवि , आहट छेड़ देती है प्रेम राग,
है कदम चूमने को आतुर , उन्मत्त मन,
पलकों की पगडंडियों पर
आज भी तुम भूली नही मेरी पसंद,
तन पर डाले नीली चुनर , गाती हो मंद-मंद ,
सोचा! कर लूँ क़ैद , तुम्हारी जीवित छवि को,
पलकों की पगडंडियों पर
साँझ ढली, आई है लालिमा आंखों में उतर ,
रोक कर रक्त प्रवाह, हृदय की ओर अग्रसर,
प्रेम दिवाकर उदित करने तुम ,
पलकों की पगडंडियों पर
अब व्याकुल हो गया मन मिलन को,
डूबकर आँखों में तुम्हारी,
भूल जाऊं विछोह की तड़पन को,
आ जाऊं त्याग कर देह- संसार,
पथराई पलकों की पगडंडियों पर
फिर! मझधार में चली गयी , छोड़कर तुम ,
साथ निभाने की शपथ, तोड़कर तुम,
स्वप्न टूटा , पलकें खुली ,
तुम हो गई गुम ,
पलकों की पगडंडियों पर
वर्षों बीते तुम्हारी मृत्यु को ,
फिर भी तुम जीवित हो,
मिलन वचनों को निभाती हुई ,
प्रेम आस दृढ़ कराती हुई,
मेरी पलकों की पगडंडियों पर
फिर वही कराहता ज़र्ज़र मन,
सपनों में ढूँढता अपनापन ,
आश्रू प्रवाह में डूबती पलकें ,
आस लगाए, तुम फिर आओगी ,
पलकों की पगडंडियों पर
-------दिनांक : २९ जून 2000
बंद हो पलकें , है मिलन की ये मांग ,
क्योंकि फिर देखा है तुम्हें ,
पलकों की पगडंडियों पर
दबे पैर , हाँथ लिए प्रेम चिराग,
छवि , आहट छेड़ देती है प्रेम राग,
है कदम चूमने को आतुर , उन्मत्त मन,
पलकों की पगडंडियों पर
आज भी तुम भूली नही मेरी पसंद,
तन पर डाले नीली चुनर , गाती हो मंद-मंद ,
सोचा! कर लूँ क़ैद , तुम्हारी जीवित छवि को,
पलकों की पगडंडियों पर
साँझ ढली, आई है लालिमा आंखों में उतर ,
रोक कर रक्त प्रवाह, हृदय की ओर अग्रसर,
प्रेम दिवाकर उदित करने तुम ,
पलकों की पगडंडियों पर
अब व्याकुल हो गया मन मिलन को,
डूबकर आँखों में तुम्हारी,
भूल जाऊं विछोह की तड़पन को,
आ जाऊं त्याग कर देह- संसार,
पथराई पलकों की पगडंडियों पर
फिर! मझधार में चली गयी , छोड़कर तुम ,
साथ निभाने की शपथ, तोड़कर तुम,
स्वप्न टूटा , पलकें खुली ,
तुम हो गई गुम ,
पलकों की पगडंडियों पर
वर्षों बीते तुम्हारी मृत्यु को ,
फिर भी तुम जीवित हो,
मिलन वचनों को निभाती हुई ,
प्रेम आस दृढ़ कराती हुई,
मेरी पलकों की पगडंडियों पर
फिर वही कराहता ज़र्ज़र मन,
सपनों में ढूँढता अपनापन ,
आश्रू प्रवाह में डूबती पलकें ,
आस लगाए, तुम फिर आओगी ,
पलकों की पगडंडियों पर
-------दिनांक : २९ जून 2000
Monday, March 26, 2007
लकीरों की हेर- फेर
हथेली पर गहरी खीची ,
किस्मत का जाल बिछाती हुई ,
ये हाथों की लकीरें!
मैं चला जा रहा हूँ इन लकीरों पर ,
जाने कहॉ ले जाएँ ये हाथों की लकीरें
एक धूमिल सा आकाश,
एक काला सा प्रकाश,
घेरे है मुझको!
चलना चाहा पर,
हिल भी ना पाया,
नीचे देखा तो ,
साथ नहीँ था मेरा साया ,
मैं कहॉ हूँ खड़ा,
न थी पग तले धरा !
जाने कहॉ ले आई ये हाथों की लकीरें
डरते - डरते हाथों को हिलाया ,
तो मैं उड़ने लगा !
माथे का पसीना पोछना चाहा तो अधमरा सा हो गया !
मूठ्ठि खोली तो लिखा पाया,
'नरक में क्यों आया!'
आँखें फटी , मुँह खुला ,
सामने दिखा मौत का झूला !
गौर से देखा तो जबान लटक गई,
गुम थी हथेली से , वो हाथों कि लकीरें
अब तो मिट गई सब भूख- प्यास ,
मन में थी सिर्फ बाहर निकलने कि आस ,
आचानक हथेली पे टपका कुछ लाल सा,
बहता हुआ ललाट से, लगता है रक्त सा!
माथे कि शिकन और गहराई ,
आँखें बंद हुई और नानी याद आई!
आँखें खुली तो चीख निकल गई,
मेरी आत्मा बिस्तार से गिर गई!
कौतुक -वश हथेली को निहारा,
फिर चीख कर माँ को पुकारा ,
और पूछा ' मेरे हाथ लाल क्यों हैं ?'
जवाब मिल कि होली के रंग अभी उतरे नही
फिर देखा तो मुस्कुरा रही थी ,
वो हाथों की लकीरें
-- दिनांक : 19 मार्च 2001
किस्मत का जाल बिछाती हुई ,
ये हाथों की लकीरें!
मैं चला जा रहा हूँ इन लकीरों पर ,
जाने कहॉ ले जाएँ ये हाथों की लकीरें
एक धूमिल सा आकाश,
एक काला सा प्रकाश,
घेरे है मुझको!
चलना चाहा पर,
हिल भी ना पाया,
नीचे देखा तो ,
साथ नहीँ था मेरा साया ,
मैं कहॉ हूँ खड़ा,
न थी पग तले धरा !
जाने कहॉ ले आई ये हाथों की लकीरें
डरते - डरते हाथों को हिलाया ,
तो मैं उड़ने लगा !
माथे का पसीना पोछना चाहा तो अधमरा सा हो गया !
मूठ्ठि खोली तो लिखा पाया,
'नरक में क्यों आया!'
आँखें फटी , मुँह खुला ,
सामने दिखा मौत का झूला !
गौर से देखा तो जबान लटक गई,
गुम थी हथेली से , वो हाथों कि लकीरें
अब तो मिट गई सब भूख- प्यास ,
मन में थी सिर्फ बाहर निकलने कि आस ,
आचानक हथेली पे टपका कुछ लाल सा,
बहता हुआ ललाट से, लगता है रक्त सा!
माथे कि शिकन और गहराई ,
आँखें बंद हुई और नानी याद आई!
आँखें खुली तो चीख निकल गई,
मेरी आत्मा बिस्तार से गिर गई!
कौतुक -वश हथेली को निहारा,
फिर चीख कर माँ को पुकारा ,
और पूछा ' मेरे हाथ लाल क्यों हैं ?'
जवाब मिल कि होली के रंग अभी उतरे नही
फिर देखा तो मुस्कुरा रही थी ,
वो हाथों की लकीरें
-- दिनांक : 19 मार्च 2001
ओस की बूँदें
दूभ की सतह पर लेटी हुई ,
बरसों से अर्ध -सुप्त ओस की बूँदें
देखती है इस रात के आकर को,
उन छोटे - छोटे सपनों के अम्बर को,
कुछ ऊंचाई के , कुछ गहराई के ,
कुछ प्यास के , कुछ आभास के ,
कुछ छोटे , कुछ बड़े ,
पलकों कि सतह पर खड़े ,
सूर्योदय के इंतज़ार में
बरसों से आर्ध-सुप्त,
ये ओस की बूँदें
बरसों से कटती हुई इन पैने आधारों से ,
सोचती हैं , कभी तो आकाश मिले,
कभी तो उदास चंद्रमुख खिले
उनको देखो जो रातरानी की पलकों पे सोये हैं,
पराग के आंगन की कस्तूरी में खोये हैं,
आभास नही उनको सूरज की तपन का ,
मृगनयनी की मुस्कुराहटों की घुटन का ,
जिसे दर्द नही सागर उद्धृत, चांदनी तरित , छंभंगुर मोतियों का ,
वो तो दुःखी है इंतज़ार में , लहलहाती , मधमाते , गेहूं की फसल का
फिर धीरे-धीरे शितालांचल घुलता हुआ,
फिर आस लगाए कि जन्मांतर हरियाली की गोद मिले,
विलीन हो गई भोर के आँचल में,
बरसों से आर्ध सुप्त, ये ओस की बूँदें
--दिनांक : १५ नोवेम्बेर २००१
बरसों से अर्ध -सुप्त ओस की बूँदें
देखती है इस रात के आकर को,
उन छोटे - छोटे सपनों के अम्बर को,
कुछ ऊंचाई के , कुछ गहराई के ,
कुछ प्यास के , कुछ आभास के ,
कुछ छोटे , कुछ बड़े ,
पलकों कि सतह पर खड़े ,
सूर्योदय के इंतज़ार में
बरसों से आर्ध-सुप्त,
ये ओस की बूँदें
बरसों से कटती हुई इन पैने आधारों से ,
सोचती हैं , कभी तो आकाश मिले,
कभी तो उदास चंद्रमुख खिले
उनको देखो जो रातरानी की पलकों पे सोये हैं,
पराग के आंगन की कस्तूरी में खोये हैं,
आभास नही उनको सूरज की तपन का ,
मृगनयनी की मुस्कुराहटों की घुटन का ,
जिसे दर्द नही सागर उद्धृत, चांदनी तरित , छंभंगुर मोतियों का ,
वो तो दुःखी है इंतज़ार में , लहलहाती , मधमाते , गेहूं की फसल का
फिर धीरे-धीरे शितालांचल घुलता हुआ,
फिर आस लगाए कि जन्मांतर हरियाली की गोद मिले,
विलीन हो गई भोर के आँचल में,
बरसों से आर्ध सुप्त, ये ओस की बूँदें
--दिनांक : १५ नोवेम्बेर २००१
Sunday, March 25, 2007
क्या ख्वाब!
एक ताश का महल,
सामने झील में खिलता कागज़ का कँवल,
पीछे बाग़ में घाना कोहरा,
एक हवा का झोंका दिखाता झुल्फों की ओट में छुपा चेहरा
क्या वो तुम हो, हाँ वो तुम हो,
पर कौन हो तुम!
क्या ख्वाब! जो हैं नींदों से परे
एक हवा का झोंका,
और हथेली पे ताश का गुलाम,
क्या साज़ के सुर,
क्या आवाज़ के नुपुर,
और तुम ताश की बेगम
और तब इक्का मुश्कुराया,
बादशाह के साथ प्यादे भी लाया,
गिराया शतरंज की बिसात पर,
फिर उजाले से उभरा एक हाँथ,
क्या वो तुम हो, हाँ वो तुम हो,
पर कौन हो तुम!
क्या ख्वाब! जो हैं सपनो के आकर से बड़े
फिर घोड़ों के चापों की आवाज़,
मैं फिक्वाया गया बिसात से,
पर नही तेरी याद से,
गिरा जाकर मन में अपने,
देखी तस्वीर धुंधली तेरी,
जिसकी शकल न बनी थी पूरी,
पर सुनाई दी तेरी आवाज़,
कि मैं खड़ी हूँ तेरे पास,
क्या वो तुम हो, हाँ वो तुम हो,
पर कौन हो तुम!
क्या ख्वाब! जो पल्को पर हैं बिखरे पड़े
और फिर तपिश अगन की,
जल गए सारे कागज़ के कँवल,
बस फर्श पे बिखरी राख,
उड़ते, उठते - गिरते ताश के ईक्के,
जलते- दौड़ते झील की ओर, शतरंज के प्यादे,
कहॉ वो बाग़, कहॉ वो कोहरा,
बस झुंस में दमकता एक चेहरा,
क्या वो तुम हो, हाँ वो तुम हो,
पर कौन हो तुम!
क्या ख्वाब!!!
फिर हुई दरवाज़े पे दस्तक
और सारा महल ढह गया
कुछ तिनके इधर-उधर बिखरे पड़े,
और दूर- दूर तक मैं, सिर्फ मैं ,
पर कौन हूँ मैं!
क्या ख्वाब!
जो सदियों से थे आँखों में सोये पड़े ।
दरवाज़ा खोला तो तुमको पाया,
तुम स्वप्न सुंदरी या कोई माया,
शुन्य हो गई सपनो से दूरी ,
अधूरी तस्वीर बन गई पूरी,
सामने खड़ी तुम , मेरी हो,
पर कौन हो तुम!
क्या ख्वाब!!!
-- दिनांक : २७ फेब्रुअरी २००२
सामने झील में खिलता कागज़ का कँवल,
पीछे बाग़ में घाना कोहरा,
एक हवा का झोंका दिखाता झुल्फों की ओट में छुपा चेहरा
क्या वो तुम हो, हाँ वो तुम हो,
पर कौन हो तुम!
क्या ख्वाब! जो हैं नींदों से परे
एक हवा का झोंका,
और हथेली पे ताश का गुलाम,
क्या साज़ के सुर,
क्या आवाज़ के नुपुर,
और तुम ताश की बेगम
और तब इक्का मुश्कुराया,
बादशाह के साथ प्यादे भी लाया,
गिराया शतरंज की बिसात पर,
फिर उजाले से उभरा एक हाँथ,
क्या वो तुम हो, हाँ वो तुम हो,
पर कौन हो तुम!
क्या ख्वाब! जो हैं सपनो के आकर से बड़े
फिर घोड़ों के चापों की आवाज़,
मैं फिक्वाया गया बिसात से,
पर नही तेरी याद से,
गिरा जाकर मन में अपने,
देखी तस्वीर धुंधली तेरी,
जिसकी शकल न बनी थी पूरी,
पर सुनाई दी तेरी आवाज़,
कि मैं खड़ी हूँ तेरे पास,
क्या वो तुम हो, हाँ वो तुम हो,
पर कौन हो तुम!
क्या ख्वाब! जो पल्को पर हैं बिखरे पड़े
और फिर तपिश अगन की,
जल गए सारे कागज़ के कँवल,
बस फर्श पे बिखरी राख,
उड़ते, उठते - गिरते ताश के ईक्के,
जलते- दौड़ते झील की ओर, शतरंज के प्यादे,
कहॉ वो बाग़, कहॉ वो कोहरा,
बस झुंस में दमकता एक चेहरा,
क्या वो तुम हो, हाँ वो तुम हो,
पर कौन हो तुम!
क्या ख्वाब!!!
फिर हुई दरवाज़े पे दस्तक
और सारा महल ढह गया
कुछ तिनके इधर-उधर बिखरे पड़े,
और दूर- दूर तक मैं, सिर्फ मैं ,
पर कौन हूँ मैं!
क्या ख्वाब!
जो सदियों से थे आँखों में सोये पड़े ।
दरवाज़ा खोला तो तुमको पाया,
तुम स्वप्न सुंदरी या कोई माया,
शुन्य हो गई सपनो से दूरी ,
अधूरी तस्वीर बन गई पूरी,
सामने खड़ी तुम , मेरी हो,
पर कौन हो तुम!
क्या ख्वाब!!!
-- दिनांक : २७ फेब्रुअरी २००२
मैं और तुम|
मेरे अरमानों की कश्ती में बह रही हो,
मेरे खावाबों के साये में चल रही हो,
पर में ना राह हूँ ना मंज़िल हूँ,
क्योंकि ना मैं- मैं हूँ, ना तुम तुम हो,
तुम बस मेरे ख्यालों में गुम हो
मैं ये हूँ, मैं वो हूँ
मैं यहाँ हूँ, मैं वहाँ हूँ,
आस में, प्यास में,
ख्वाबों में, ख्यालों में,
हर पल मुझे ढूँढ रही हो,
पर मैं न जाने कहॉ गूम हूँ,
क्योंकि न मैं- मैं हूँ,
ना तुम- तुम हो,
तुम बस मेरी यादों में गुमसुम हो
अब छोड़ो भी मुझे और मेरे अहसास को,
मधुर- दूषित कल्पना के आकाश को,
और जियो अपने प्रकाश में,
क्योंकि मैं कुछ नही, बस एक आभास हूँ,
और मान लो की ना मैं- मैं हूँ,
केवल तुम ही तुम हो,
मैं तो बस तुम्हारे शृंगार का कुमकुम हूँ
--दिनांक : ९ मार्च २००२
मेरे खावाबों के साये में चल रही हो,
पर में ना राह हूँ ना मंज़िल हूँ,
क्योंकि ना मैं- मैं हूँ, ना तुम तुम हो,
तुम बस मेरे ख्यालों में गुम हो
मैं ये हूँ, मैं वो हूँ
मैं यहाँ हूँ, मैं वहाँ हूँ,
आस में, प्यास में,
ख्वाबों में, ख्यालों में,
हर पल मुझे ढूँढ रही हो,
पर मैं न जाने कहॉ गूम हूँ,
क्योंकि न मैं- मैं हूँ,
ना तुम- तुम हो,
तुम बस मेरी यादों में गुमसुम हो
अब छोड़ो भी मुझे और मेरे अहसास को,
मधुर- दूषित कल्पना के आकाश को,
और जियो अपने प्रकाश में,
क्योंकि मैं कुछ नही, बस एक आभास हूँ,
और मान लो की ना मैं- मैं हूँ,
केवल तुम ही तुम हो,
मैं तो बस तुम्हारे शृंगार का कुमकुम हूँ
--दिनांक : ९ मार्च २००२
बस एक झलक|
रूठ कर बैठा है सवेरा मुझसे,
तेरी तलाश में बेक़रार हूँ कबसे,
तुम्हे दूर सवेरे में खोया है जबसे,
नींद की एक भी झलक ना देखी है तबसे ,
जो मिल जाओ तुम, तो अँधेरा छ्टे,
बरसों के विछोह का एहसास मिटे,
अब आ जाओ तुम लेकर रौशन दीये
और बस एक झलक मेरे लिए,
बस एक झलक मेरे लिए
--- दिनांक : १५ अक्तोबेर २००१।
तेरी तलाश में बेक़रार हूँ कबसे,
तुम्हे दूर सवेरे में खोया है जबसे,
नींद की एक भी झलक ना देखी है तबसे ,
जो मिल जाओ तुम, तो अँधेरा छ्टे,
बरसों के विछोह का एहसास मिटे,
अब आ जाओ तुम लेकर रौशन दीये
और बस एक झलक मेरे लिए,
बस एक झलक मेरे लिए
--- दिनांक : १५ अक्तोबेर २००१।
मैं पल-पल का कवि हूँ|
पल ही आदि है, और पल पल में अंत समाया है
पल - पल को न रोक सका कोई,
मन में केवल स्थिर पल का भ्रम समाया है
पल-पल का रक्षक भी पल है,
पल-पल का भक्षक भी पल है,
पल-पल के पूर्व भी पल है,
पल-पल के बाद भी पल है,
पल-पल के बाद ही पलों का मोल समझ में आया है
वह मूर्ख है जो हर पल आश्रू में भिगोता है,
जो सोया है वो खोया है, जो जग है वो पाया है,
हर पल खुशियों का उपहार उसी ने पाया है
पल - पल को न रोक सका कोई,
मन में केवल स्थिर पल का भ्रम समाया है
पल-पल का रक्षक भी पल है,
पल-पल का भक्षक भी पल है,
पल-पल के पूर्व भी पल है,
पल-पल के बाद भी पल है,
पल-पल के बाद ही पलों का मोल समझ में आया है
वह मूर्ख है जो हर पल आश्रू में भिगोता है,
जो सोया है वो खोया है, जो जग है वो पाया है,
हर पल खुशियों का उपहार उसी ने पाया है
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