Saturday, January 24, 2009

कंकर

उन पत्तों की भीड़ में खो आँख मिचौली खेलना ,
पवन पे चढ़ कर यूँ उड़ जाना,
की मानो पंछी बन चाँद छूने जाता हूँ ।
बारिश की झड़ी में यूँ बह जाना ,
की मानो मछली बन सागर तैरने जाता हूँ ।
वो बचपन न भूला पाउँगा मैं ,
कैसे दूर जाऊंगा मैं, नही सोच पता हूँ

कभी बारिश में भीगती उस चंचला के लिए ,
सौंधी खुशबू बन जाना ,
और कभी पेड़ों की छाओं में सोती उस मधुमती को
लोरी गा सुनाना
कैसे भूलूं उस श्यामला के स्पर्श को ,
कैसे छोड़ जाऊँ उसको,
खुशबू से जिसकी मैं, अपनी सांसे नही चुरा पता हूँ ।

पथिक के पैरों से , गाड़ी के पहियों से,
रोज चला जा रहा हूँ ,
इथ उड़ता , तिथ गिरता ,
बेबस सा ,
हर कदम पे मैं , अपनी यादें छोड़ता जाता हूँ ।

कंकर हूँ मैं , राह से कैसे जुदा हो पाउँगा ,
तुझसे जन्मा हूँ मैं , रूठ कर कहाँ जाऊंगा ।