Wednesday, June 20, 2007

अँधा कौन

अंधेर नागरी, अँधा राजा,
सब आँखों वाले, पर न दिखता कोई बन्दा,
सब अंधे! रब अंधा!
संसार है एक गोरखधंधा!

Saturday, June 2, 2007

मेरा खुदा कोई नही।

आये थे दिल्ली की गलियों में अकेले हम,
साथ न यार , न दोस्त, था अपना सगा कोई नही,

खुले आस्मान के साये में, बस मैं और मेरे अरमान,
दिन में दफ्तरों से बातें,
रात में सितारों से नक्श-ए-बयाँ होता।

कोई हँसता, कोई दुत्कार देता,
अजनाबी शहर की जमांना-ए-वफ़ा कोई नही।

ये कैसी थी आवाज़, जो सन्नाटों में खोई नही,
पल में बिखरे फर्श पे ,
चुभते हैं ये अरमानों के टुकड़े,

ख़ून के छीँटे थे हर दिवार पर,
जब क़त्ल हुआ मेरा , तब था मेरा खुदा कोई नही।