tag:blogger.com,1999:blog-36883850598835965582024-03-08T01:58:32.174-08:00सपनों का अम्बार |कविता संग्रह : एक कोशिश , एक संकल्प, और हज़ारों सपने शब्दों में पिरोये हुये |Manish Kumarhttp://www.blogger.com/profile/16208116238002403559noreply@blogger.comBlogger13125tag:blogger.com,1999:blog-3688385059883596558.post-20811046887990980652009-01-24T11:44:00.000-08:002009-01-25T00:57:59.174-08:00कंकरउन पत्तों की भीड़ में खो आँख मिचौली खेलना ,<br />पवन पे चढ़ कर यूँ उड़ जाना,<br /><span class="">की मानो पंछी बन चाँद छूने जाता हूँ । </span><br /><span class="">बारिश की झड़ी </span><span class="">में यूँ बह जाना ,</span><br /><span class="">की मानो मछली बन सागर तैरने जाता हूँ । </span><br /><span class="">वो बचपन न भूला पाउँगा मैं ,</span><br /><span class="">कैसे दूर जाऊंगा मैं, नही सोच पता हूँ </span><span class="">। </span><br /><span class=""></span><br /><span class="">कभी बारिश में भीगती उस चंचला के लिए ,</span><br /><span class="">सौंधी खुशबू बन जाना ,</span><br /><span class="">और कभी पेड़ों </span><span class="">की छाओं में सोती उस मधुमती को </span><br /><span class=""><span class=""></span>लोरी </span><span class="">गा सुनाना</span><br /><span class="">कैसे भूलूं उस श्यामला के स्पर्श को ,</span><br /><span class="">कैसे छोड़ जाऊँ उसको, </span><br /><span class="">खुशबू से जिसकी मैं, अपनी सांसे नही चुरा पता हूँ । </span><br /><span class=""><span class=""><span class=""></span></span></span><br /><span class="">पथिक के पैरों से , गाड़ी के पहियों से,</span><br /><span class="">रोज चला जा रहा हूँ ,</span><br /><span class="">इथ उड़ता , तिथ गिरता , </span><br /><span class=""><span class=""></span>बेबस सा ,</span><br /><span class="">हर कदम पे मैं , अपनी यादें छोड़ता जाता हूँ । </span><br /><span class=""></span><br /><span class="">कंकर हूँ मैं , राह से कैसे जुदा हो पाउँगा ,</span><br /><span class="">तुझसे जन्मा हूँ मैं , रूठ कर कहाँ जाऊंगा । </span><span class=""></span>Manish Kumarhttp://www.blogger.com/profile/16208116238002403559noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-3688385059883596558.post-19401900566062705802007-06-20T11:44:00.000-07:002007-06-20T11:45:41.328-07:00अँधा कौनअंधेर नागरी, अँधा राजा, <span class=""></span><br /><span class=""></span>सब आँखों वाले, पर न दिखता कोई बन्दा,<br />सब अंधे! रब अंधा!<br />संसार है एक गोरखधंधा!Manish Kumarhttp://www.blogger.com/profile/16208116238002403559noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3688385059883596558.post-68175871153298320592007-06-02T05:36:00.001-07:002007-07-15T03:35:31.406-07:00मेरा खुदा कोई नही।आये थे दिल्ली की गलियों में अकेले हम,<br />साथ न यार , न दोस्त, था अपना सगा कोई नही,<br /><br />खुले आस्मान के साये में, बस मैं और मेरे अरमान,<br />दिन में दफ्तरों से बातें,<br />रात में सितारों से नक्श-ए-बयाँ होता।<br /><br />कोई हँसता, कोई दुत्कार देता,<br />अजनाबी शहर की जमांना-ए-वफ़ा कोई नही।<br /><br />ये कैसी थी आवाज़, जो सन्नाटों में खोई नही,<br />पल में बिखरे फर्श पे ,<br />चुभते हैं ये अरमानों के टुकड़े,<br /><br />ख़ून के छीँटे थे हर दिवार पर,<br />जब क़त्ल हुआ मेरा , तब था मेरा खुदा कोई नही।Manish Kumarhttp://www.blogger.com/profile/16208116238002403559noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-3688385059883596558.post-63211145149663839582007-04-15T04:17:00.000-07:002008-11-25T01:01:46.190-08:00मैं जन्म, जीवन व मृत्यु का आधार चाहता हूँ ।मैं जन्म, जीवन व मृत्यु का आधार चाहता हूँ ।<br />मैं भारत भूमी पर जन्म बारम्बार चाहता हूँ ।<br /><br />विश्व का तिलक,<br />भूमी का आभूषण,<br />मतृत्व का भूषन,<br />और भारत का चहुमुखी विस्तार चाहता हूँ ।<br />मैं जन्म, जीवन व मृत्यु का आधार चाहता हूँ ।<br /><br /><br />लोगों का कोमल स्नेह,<br />वृधों का आशीर्वाद,<br />गॉव की हरियाली,<br />शहर की आकर,<br />और भारत माता का प्यार चाहता हूँ ।<br /><br />हिमालय की ऊंचाई,<br />मानवता की गहराई,<br />गंगा की पवित्रता,<br />आत्म की स्वच्छता,<br />और भारत भूमि पर जन्म लेकर,<br />अपना उद्धार चाहता हूँ।<br />मैं जन्म, जीवन व मृत्यु का आधार चाहता हूँ ।<br /><br />सत्य का आकाश,<br />भारत का विकास ,<br />मानवता का प्रकाश,<br />और इस धर्मनिरपेक्ष भूमि पर ईश्वर का वास चाहता हूँ।<br /><br />मैं भारतीयता का सम्मान ,<br /><br />बहुमुखी संकृति का <span class="">आंचा,</span><br /><span class=""></span><br /><span class=""></span>की सौंधी खुशबु<br /><span class=""></span><br /><span class=""></span>माता की चरण धूलि चाहता हूँ,<br /><br />मैं जन्म, जीवन व मृत्यु का आधार चाहता हूँ ।<br /><br /><br /><br /><br /><p></p><br /><p></p>Manish Kumarhttp://www.blogger.com/profile/16208116238002403559noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-3688385059883596558.post-88608940401384314672007-04-08T12:29:00.000-07:002008-11-25T01:02:12.569-08:00देशप्रेम! एक विडम्बना है ।वह जो भावों से परिपूर्ण भवन के आधार की कल्पना है<br />आज के युग में आभावों से परिपक्वा मानव की विडम्बना है ।<br /><br />कण- कण भावहीन है,<br />फिर भी भावों के प्रभाव का ही नाम जपना है ।<br /><br />शरीर, मन , आत्म सब परायी है,<br />केवल धन ही अपना है<br />भ्रष्टाचार में लिप्त!<br />आत्म की आवाजों को सुनना, एक पागलपन है ।<br /><br />सत्य, अहिंसा , प्रेम नही आज के आदर्श,<br />बल्कि लोभ, लालच और कमाना है।<br /><br />मन में विदेश सुख की आस है,<br />और पराया देश ही अपना है ।<br /><br />ओ ! धनवृष्ती को आतुर नयन,<br />देशप्रेम केवल एक विडम्बना है।<br /><br />दिनांक : १३ जून १९९९ ।Manish Kumarhttp://www.blogger.com/profile/16208116238002403559noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-3688385059883596558.post-34606161957098977402007-04-08T12:12:00.000-07:002008-11-25T01:02:49.110-08:00मेरा भविष्य !मेरे मन की अनुभूति,<br />मेरी आशाओं की रेखाकृती,<br />सफल मुक्त सा आभास,<br />मेरी कल्पना, मेरा विश्वास,<br />यूँही, सपनो के आकाश में,<br />मिला मैं आज अपने भविष्य से ।<br /><br />नन्हा सा, कोमल सा,<br />पलता मेरे मन में ,<br />जैसे आजन्म शिशु हो मतृ तन <span class="">में,</span><br />ढूँढता - खोजता अपने आकर को,<br />मन की गहराई में,<br />लालसा की तनहाई में,<br />मेरा भविष्य, वो मेरा कल!<br /><br /><br />आवाज़ में कम्पन,<br />माथे पे शिकन,<br />चमकता सर, लटकती उदर,<br />ढलती उमर, झूलती क़मर ,<br />ये तो बस एक झलक थी,<br />और डरने को बहुत था बाकी,<br />यूँही! मिला मैं आज मिल अपने भविष्य से ।<br /><br />वोही दिन, वोही रात,<br />वोही धरती, वोही आकाश,<br />बस सारी दुनिया ही बदल गयी!<br />वो बचपन की प्यारी दुनिया,<br />बस यादों में है हमारी दुनिया ,<br />यूँही , बस यूँही ।<br /><br />मेरा बस एक सवाल "क्या तुम खुश हो?",<br />और जवाब में वो चिन्ता के अम्बार,<br />आज भी व्याकुल हूँ, कल भी चिंतित होऊंगा ।<br />मेरा भविष्य मैंने ऐसा तो ना सोचा है ।<br /><br />यूँही, आज मिल मैं अपने भविष्य से।<br /><br />दिनांक : ७ मई २००२ ।Manish Kumarhttp://www.blogger.com/profile/16208116238002403559noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3688385059883596558.post-75611234445012039522007-03-30T13:36:00.001-07:002007-03-31T01:54:00.725-07:00पलकों की पगडंडियों पर |उमड़ पड़ी है यादें फिर समय सीमायें लाँघ ,<br />बंद हो पलकें , है मिलन की ये मांग ,<br />क्योंकि फिर देखा है तुम्हें ,<br />पलकों की पगडंडियों पर<br /><br />दबे पैर , हाँथ लिए प्रेम चिराग,<br />छवि , आहट छेड़ देती है प्रेम राग,<br />है कदम चूमने को आतुर , उन्मत्त मन,<br />पलकों की पगडंडियों पर<br /><br />आज भी तुम भूली नही मेरी पसंद,<br />तन पर डाले नीली चुनर , गाती हो मंद-मंद ,<br />सोचा! कर लूँ क़ैद , तुम्हारी जीवित छवि को,<br />पलकों की पगडंडियों पर<br /><br />साँझ ढली, आई है लालिमा आंखों में उतर ,<br />रोक कर रक्त प्रवाह, हृदय की ओर अग्रसर,<br />प्रेम दिवाकर उदित करने तुम ,<br />पलकों की पगडंडियों पर<br /><br />अब व्याकुल हो गया मन मिलन को,<br />डूबकर आँखों में तुम्हारी,<br />भूल जाऊं विछोह की तड़पन को,<br />आ जाऊं त्याग कर देह- संसार,<br />पथराई पलकों की पगडंडियों पर<br /><br />फिर! मझधार में चली गयी , छोड़कर तुम ,<br />साथ निभाने की शपथ, तोड़कर तुम,<br />स्वप्न टूटा , पलकें खुली ,<br />तुम हो गई गुम ,<br />पलकों की पगडंडियों पर<br /><br />वर्षों बीते तुम्हारी मृत्यु को ,<br />फिर भी तुम जीवित हो,<br />मिलन वचनों को निभाती हुई ,<br />प्रेम आस दृढ़ कराती हुई,<br />मेरी पलकों की पगडंडियों पर<br /><br />फिर वही कराहता ज़र्ज़र मन,<br />सपनों में ढूँढता अपनापन ,<br />आश्रू प्रवाह में डूबती पलकें ,<br />आस लगाए, तुम फिर आओगी ,<br />पलकों की पगडंडियों पर<br /><br />-------दिनांक : २९ जून 2000Manish Kumarhttp://www.blogger.com/profile/16208116238002403559noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-3688385059883596558.post-59632609841066147022007-03-26T10:11:00.000-07:002007-03-27T07:27:07.853-07:00लकीरों की हेर- फेरहथेली पर गहरी खीची ,<br />किस्मत का जाल बिछाती हुई ,<br />ये हाथों की लकीरें!<br /><br />मैं चला जा रहा हूँ इन लकीरों पर ,<br />जाने कहॉ ले जाएँ ये हाथों की लकीरें<br /><br />एक धूमिल सा आकाश,<br />एक काला सा प्रकाश,<br />घेरे है मुझको!<br /><br />चलना चाहा पर,<br />हिल भी ना पाया,<br />नीचे देखा तो ,<br />साथ नहीँ था मेरा साया ,<br />मैं कहॉ हूँ खड़ा,<br />न थी पग तले धरा !<br />जाने कहॉ ले आई ये हाथों की लकीरें<br /><br />डरते - डरते हाथों को हिलाया ,<br />तो मैं उड़ने लगा !<br />माथे का पसीना पोछना चाहा तो अधमरा सा हो गया !<br />मूठ्ठि खोली तो लिखा पाया,<br />'नरक में क्यों आया!'<br />आँखें फटी , मुँह खुला ,<br />सामने दिखा मौत का झूला !<br />गौर से देखा तो जबान लटक गई,<br />गुम थी हथेली से , वो हाथों कि लकीरें<br /><br />अब तो मिट गई सब भूख- प्यास ,<br />मन में थी सिर्फ बाहर निकलने कि आस ,<br />आचानक हथेली पे टपका कुछ लाल सा,<br />बहता हुआ ललाट से, लगता है रक्त सा!<br />माथे कि शिकन और गहराई ,<br />आँखें बंद हुई और नानी याद आई!<br /><br />आँखें खुली तो चीख निकल गई,<br />मेरी आत्मा बिस्तार से गिर गई!<br /><br />कौतुक -वश हथेली को निहारा,<br />फिर चीख कर माँ को पुकारा ,<br />और पूछा ' मेरे हाथ लाल क्यों हैं ?'<br />जवाब मिल कि होली के रंग अभी उतरे नही<br /><br />फिर देखा तो मुस्कुरा रही थी ,<br />वो हाथों की लकीरें<br /><br />-- दिनांक <span class="">: 19 मार्च 2001 </span><br /><span class=""></span>Manish Kumarhttp://www.blogger.com/profile/16208116238002403559noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-3688385059883596558.post-18689063476640672452007-03-26T09:50:00.000-07:002007-03-27T07:30:12.636-07:00ओस की बूँदेंदूभ की सतह पर लेटी हुई ,<br />बरसों से अर्ध -सुप्त ओस की बूँदें<br /><br />देखती है इस रात के आकर को,<br />उन छोटे - छोटे सपनों के अम्बर को,<br />कुछ ऊंचाई के , कुछ गहराई के ,<br />कुछ प्यास के , कुछ आभास के ,<br />कुछ छोटे , कुछ बड़े ,<br />पलकों कि सतह पर खड़े ,<br />सूर्योदय के इंतज़ार में<br />बरसों से आर्ध-सुप्त,<br />ये ओस की बूँदें<br /><br />बरसों से कटती हुई इन पैने आधारों से ,<br />सोचती हैं , कभी तो आकाश मिले,<br />कभी तो उदास चंद्रमुख खिले<br /><br /><br />उनको देखो जो रातरानी की पलकों पे सोये हैं,<br />पराग के आंगन की कस्तूरी में खोये हैं,<br />आभास नही उनको सूरज की तपन का ,<br />मृगनयनी की मुस्कुराहटों की घुटन का ,<br />जिसे दर्द नही सागर उद्धृत, चांदनी तरित , छंभंगुर मोतियों का ,<br />वो तो दुःखी है इंतज़ार में , लहलहाती , मधमाते , गेहूं की फसल का<br /><br />फिर धीरे-धीरे शितालांचल घुलता हुआ,<br />फिर आस लगाए कि जन्मांतर हरियाली की गोद मिले,<br />विलीन हो गई भोर के आँचल में,<br />बरसों से आर्ध सुप्त, ये ओस की <span class="">बूँदें<br /></span><br />--दिनांक : १५ नोवेम्बेर २००१Manish Kumarhttp://www.blogger.com/profile/16208116238002403559noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3688385059883596558.post-59509395891401953932007-03-25T12:20:00.000-07:002008-07-12T13:22:32.563-07:00क्या ख्वाब!एक ताश का महल,<br />सामने झील में खिलता कागज़ का कँवल,<br />पीछे बाग़ में घाना कोहरा,<br />एक हवा का झोंका दिखाता झुल्फों की ओट में छुपा चेहरा<br />क्या वो तुम हो, हाँ वो तुम हो,<br />पर कौन हो तुम!<br />क्या ख्वाब! जो हैं नींदों से परे<br /><br />एक हवा का झोंका,<br />और हथेली पे ताश का गुलाम,<br />क्या साज़ के सुर,<br />क्या आवाज़ के नुपुर,<br />और तुम ताश की बेगम<br />और तब इक्का मुश्कुराया,<br />बादशाह के साथ प्यादे भी लाया,<br />गिराया शतरंज की बिसात पर,<br />फिर उजाले से उभरा एक हाँथ,<br />क्या वो तुम हो, हाँ वो तुम हो,<br />पर कौन हो तुम!<br />क्या ख्वाब! जो हैं सपनो के आकर से बड़े<br /><br />फिर घोड़ों के चापों की आवाज़,<br />मैं फिक्वाया गया बिसात से,<br />पर नही तेरी याद से,<br />गिरा जाकर मन में अपने,<br />देखी तस्वीर धुंधली तेरी,<br />जिसकी शकल न बनी थी पूरी,<br />पर सुनाई दी तेरी आवाज़,<br />कि मैं खड़ी हूँ तेरे पास,<br />क्या वो तुम हो, हाँ वो तुम हो,<br />पर कौन हो तुम!<br />क्या ख्वाब! जो पल्को पर हैं बिखरे पड़े<br /><br />और फिर तपिश अगन की,<br />जल गए सारे कागज़ के कँवल,<br />बस फर्श पे बिखरी राख,<br />उड़ते, उठते - गिरते ताश के ईक्के,<br />जलते- दौड़ते झील की ओर, शतरंज के प्यादे,<br />कहॉ वो बाग़, कहॉ वो कोहरा,<br />बस झुंस में दमकता एक चेहरा,<br />क्या वो तुम हो, हाँ वो तुम हो,<br />पर कौन हो तुम!<br />क्या ख्वाब!!!<br /><br />फिर हुई दरवाज़े पे दस्तक<br />और सारा महल ढह गया<br />कुछ तिनके इधर-उधर बिखरे पड़े,<br />और दूर- दूर तक मैं, सिर्फ मैं ,<br />पर कौन हूँ मैं!<br />क्या ख्वाब!<br />जो सदियों से थे आँखों में सोये पड़े ।<br /><br />दरवाज़ा खोला तो तुमको पाया,<br />तुम स्वप्न सुंदरी या कोई माया,<br />शुन्य हो गई सपनो से दूरी ,<br />अधूरी तस्वीर बन गई पूरी,<br />सामने खड़ी तुम , मेरी हो,<br />पर कौन हो तुम!<br />क्या ख्वाब!!!<br /><br />-- दिनांक : २७ फेब्रुअरी २००२Manish Kumarhttp://www.blogger.com/profile/16208116238002403559noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-3688385059883596558.post-10190777084905771522007-03-25T12:03:00.000-07:002007-03-27T07:32:35.362-07:00मैं और तुम|मेरे अरमानों की कश्ती में बह रही हो,<br />मेरे खावाबों के साये में चल रही हो,<br /><br />पर में ना राह हूँ ना मंज़िल हूँ,<br />क्योंकि ना मैं- मैं हूँ, ना तुम तुम हो,<br />तुम बस मेरे ख्यालों में गुम हो<br /><br />मैं ये हूँ, मैं वो हूँ<br />मैं यहाँ हूँ, मैं वहाँ हूँ,<br />आस में, प्यास में,<br />ख्वाबों में, ख्यालों में,<br />हर पल मुझे ढूँढ रही हो,<br />पर मैं न जाने कहॉ गूम हूँ,<br />क्योंकि न मैं- मैं हूँ,<br />ना तुम- तुम हो,<br />तुम बस मेरी यादों में गुमसुम हो<br /><br />अब छोड़ो भी मुझे और मेरे अहसास को,<br />मधुर- दूषित कल्पना के आकाश को,<br />और जियो अपने प्रकाश में,<br />क्योंकि मैं कुछ नही, बस एक आभास हूँ,<br />और मान लो की ना मैं- मैं हूँ,<br />केवल तुम ही तुम हो,<br />मैं तो बस तुम्हारे शृंगार का कुमकुम हूँ<br /><br />--दिनांक : ९ मार्च<span class=""> २००२ </span>Manish Kumarhttp://www.blogger.com/profile/16208116238002403559noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3688385059883596558.post-83310319866593597742007-03-25T11:55:00.000-07:002007-03-27T07:33:29.750-07:00बस एक झलक|रूठ कर बैठा है सवेरा मुझसे,<br />तेरी तलाश में बेक़रार हूँ कबसे,<br />तुम्हे दूर सवेरे में खोया है जबसे,<br />नींद की एक भी झलक ना देखी है तबसे ,<br />जो मिल जाओ तुम, तो अँधेरा छ्टे,<br />बरसों के विछोह का एहसास मिटे,<br /><br />अब आ जाओ तुम लेकर रौशन दीये<br />और बस एक झलक मेरे लिए,<br />बस एक झलक मेरे लिए<br /><br />--- दिनांक : १५ अक्तोबेर २००१।Manish Kumarhttp://www.blogger.com/profile/16208116238002403559noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-3688385059883596558.post-71987758844469677082007-03-25T11:45:00.000-07:002008-11-25T01:03:43.111-08:00मैं पल-पल का कवि हूँ|पल ही आदि है, और पल पल में अंत समाया है<br />पल - पल को न रोक सका कोई,<br />मन में केवल स्थिर पल का भ्रम समाया है<br /><br />पल-पल का रक्षक भी पल है,<br />पल-पल का भक्षक भी पल है,<br /><br />पल-पल के पूर्व भी पल है,<br />पल-पल के बाद भी पल है,<br />पल-पल के बाद ही पलों का मोल समझ में आया है<br /><br />वह मूर्ख है जो हर पल आश्रू में भिगोता है,<br />जो सोया है वो खोया है, जो जग है वो पाया है,<br />हर पल खुशियों का उपहार उसी ने पाया हैManish Kumarhttp://www.blogger.com/profile/16208116238002403559noreply@blogger.com0