वह जो भावों से परिपूर्ण भवन के आधार की कल्पना है
आज के युग में आभावों से परिपक्वा मानव की विडम्बना है ।
कण- कण भावहीन है,
फिर भी भावों के प्रभाव का ही नाम जपना है ।
शरीर, मन , आत्म सब परायी है,
केवल धन ही अपना है
भ्रष्टाचार में लिप्त!
आत्म की आवाजों को सुनना, एक पागलपन है ।
सत्य, अहिंसा , प्रेम नही आज के आदर्श,
बल्कि लोभ, लालच और कमाना है।
मन में विदेश सुख की आस है,
और पराया देश ही अपना है ।
ओ ! धनवृष्ती को आतुर नयन,
देशप्रेम केवल एक विडम्बना है।
दिनांक : १३ जून १९९९ ।
Sunday, April 8, 2007
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2 comments:
bahut achchi lagi yeh kavita... visheshkar, mukt chhand ka prayog kabhi achcha laga...
कण- कण भावहीन है,
फिर भी भावों के प्रभाव का ही नाम जपना है ।
bahut sahi yeh line !
dhanyavad anurag!
waise ye ap aur hum dono pe lagu hota hai :)
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