Sunday, April 8, 2007

देशप्रेम! एक विडम्बना है ।

वह जो भावों से परिपूर्ण भवन के आधार की कल्पना है
आज के युग में आभावों से परिपक्वा मानव की विडम्बना है ।

कण- कण भावहीन है,
फिर भी भावों के प्रभाव का ही नाम जपना है ।

शरीर, मन , आत्म सब परायी है,
केवल धन ही अपना है
भ्रष्टाचार में लिप्त!
आत्म की आवाजों को सुनना, एक पागलपन है ।

सत्य, अहिंसा , प्रेम नही आज के आदर्श,
बल्कि लोभ, लालच और कमाना है।

मन में विदेश सुख की आस है,
और पराया देश ही अपना है ।

ओ ! धनवृष्ती को आतुर नयन,
देशप्रेम केवल एक विडम्बना है।

दिनांक : १३ जून १९९९ ।

2 comments:

anurag said...

bahut achchi lagi yeh kavita... visheshkar, mukt chhand ka prayog kabhi achcha laga...

कण- कण भावहीन है,
फिर भी भावों के प्रभाव का ही नाम जपना है ।

bahut sahi yeh line !

Manish Kumar said...

dhanyavad anurag!
waise ye ap aur hum dono pe lagu hota hai :)