Monday, March 26, 2007

ओस की बूँदें

दूभ की सतह पर लेटी हुई ,
बरसों से अर्ध -सुप्त ओस की बूँदें

देखती है इस रात के आकर को,
उन छोटे - छोटे सपनों के अम्बर को,
कुछ ऊंचाई के , कुछ गहराई के ,
कुछ प्यास के , कुछ आभास के ,
कुछ छोटे , कुछ बड़े ,
पलकों कि सतह पर खड़े ,
सूर्योदय के इंतज़ार में
बरसों से आर्ध-सुप्त,
ये ओस की बूँदें

बरसों से कटती हुई इन पैने आधारों से ,
सोचती हैं , कभी तो आकाश मिले,
कभी तो उदास चंद्रमुख खिले


उनको देखो जो रातरानी की पलकों पे सोये हैं,
पराग के आंगन की कस्तूरी में खोये हैं,
आभास नही उनको सूरज की तपन का ,
मृगनयनी की मुस्कुराहटों की घुटन का ,
जिसे दर्द नही सागर उद्धृत, चांदनी तरित , छंभंगुर मोतियों का ,
वो तो दुःखी है इंतज़ार में , लहलहाती , मधमाते , गेहूं की फसल का

फिर धीरे-धीरे शितालांचल घुलता हुआ,
फिर आस लगाए कि जन्मांतर हरियाली की गोद मिले,
विलीन हो गई भोर के आँचल में,
बरसों से आर्ध सुप्त, ये ओस की बूँदें

--दिनांक : १५ नोवेम्बेर २००१

1 comment:

Anonymous said...

Very nice ........ Bahhot khoobsuratti ke sath "" Tum "" ko describe karne ki kosish ki gayi hai......... ... Very nice ........ I liked it very much ..........