आये थे दिल्ली की गलियों में अकेले हम,
साथ न यार , न दोस्त, था अपना सगा कोई नही,
खुले आस्मान के साये में, बस मैं और मेरे अरमान,
दिन में दफ्तरों से बातें,
रात में सितारों से नक्श-ए-बयाँ होता।
कोई हँसता, कोई दुत्कार देता,
अजनाबी शहर की जमांना-ए-वफ़ा कोई नही।
ये कैसी थी आवाज़, जो सन्नाटों में खोई नही,
पल में बिखरे फर्श पे ,
चुभते हैं ये अरमानों के टुकड़े,
ख़ून के छीँटे थे हर दिवार पर,
जब क़त्ल हुआ मेरा , तब था मेरा खुदा कोई नही।
Saturday, June 2, 2007
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3 comments:
मनीष जी,बहुत भावपूर्ण रचना है।बधाई।
Bahut khoob... keep the good work going.....
going by the theme....
"shaayad main zindagii kii sahar leke aa gayaa
qaatil ko aaj apane hii ghar leke aa gayaa "
Dhanyavad Paramjeet ji and krishna.
I will try to keep up the spirit :)
koshish yahi rahegi ki apko aur aachi kriyan mile.
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