उन पत्तों की भीड़ में खो आँख मिचौली खेलना ,
पवन पे चढ़ कर यूँ उड़ जाना,
की मानो पंछी बन चाँद छूने जाता हूँ ।
बारिश की झड़ी में यूँ बह जाना ,
की मानो मछली बन सागर तैरने जाता हूँ ।
वो बचपन न भूला पाउँगा मैं ,
कैसे दूर जाऊंगा मैं, नही सोच पता हूँ ।
कभी बारिश में भीगती उस चंचला के लिए ,
सौंधी खुशबू बन जाना ,
और कभी पेड़ों की छाओं में सोती उस मधुमती को
लोरी गा सुनाना
कैसे भूलूं उस श्यामला के स्पर्श को ,
कैसे छोड़ जाऊँ उसको,
खुशबू से जिसकी मैं, अपनी सांसे नही चुरा पता हूँ ।
पथिक के पैरों से , गाड़ी के पहियों से,
रोज चला जा रहा हूँ ,
इथ उड़ता , तिथ गिरता ,
बेबस सा ,
हर कदम पे मैं , अपनी यादें छोड़ता जाता हूँ ।
कंकर हूँ मैं , राह से कैसे जुदा हो पाउँगा ,
तुझसे जन्मा हूँ मैं , रूठ कर कहाँ जाऊंगा ।
Saturday, January 24, 2009
Wednesday, June 20, 2007
अँधा कौन
अंधेर नागरी, अँधा राजा,
सब आँखों वाले, पर न दिखता कोई बन्दा,
सब अंधे! रब अंधा!
संसार है एक गोरखधंधा!
सब आँखों वाले, पर न दिखता कोई बन्दा,
सब अंधे! रब अंधा!
संसार है एक गोरखधंधा!
Saturday, June 2, 2007
मेरा खुदा कोई नही।
आये थे दिल्ली की गलियों में अकेले हम,
साथ न यार , न दोस्त, था अपना सगा कोई नही,
खुले आस्मान के साये में, बस मैं और मेरे अरमान,
दिन में दफ्तरों से बातें,
रात में सितारों से नक्श-ए-बयाँ होता।
कोई हँसता, कोई दुत्कार देता,
अजनाबी शहर की जमांना-ए-वफ़ा कोई नही।
ये कैसी थी आवाज़, जो सन्नाटों में खोई नही,
पल में बिखरे फर्श पे ,
चुभते हैं ये अरमानों के टुकड़े,
ख़ून के छीँटे थे हर दिवार पर,
जब क़त्ल हुआ मेरा , तब था मेरा खुदा कोई नही।
साथ न यार , न दोस्त, था अपना सगा कोई नही,
खुले आस्मान के साये में, बस मैं और मेरे अरमान,
दिन में दफ्तरों से बातें,
रात में सितारों से नक्श-ए-बयाँ होता।
कोई हँसता, कोई दुत्कार देता,
अजनाबी शहर की जमांना-ए-वफ़ा कोई नही।
ये कैसी थी आवाज़, जो सन्नाटों में खोई नही,
पल में बिखरे फर्श पे ,
चुभते हैं ये अरमानों के टुकड़े,
ख़ून के छीँटे थे हर दिवार पर,
जब क़त्ल हुआ मेरा , तब था मेरा खुदा कोई नही।
Sunday, April 15, 2007
मैं जन्म, जीवन व मृत्यु का आधार चाहता हूँ ।
मैं जन्म, जीवन व मृत्यु का आधार चाहता हूँ ।
मैं भारत भूमी पर जन्म बारम्बार चाहता हूँ ।
विश्व का तिलक,
भूमी का आभूषण,
मतृत्व का भूषन,
और भारत का चहुमुखी विस्तार चाहता हूँ ।
मैं जन्म, जीवन व मृत्यु का आधार चाहता हूँ ।
लोगों का कोमल स्नेह,
वृधों का आशीर्वाद,
गॉव की हरियाली,
शहर की आकर,
और भारत माता का प्यार चाहता हूँ ।
हिमालय की ऊंचाई,
मानवता की गहराई,
गंगा की पवित्रता,
आत्म की स्वच्छता,
और भारत भूमि पर जन्म लेकर,
अपना उद्धार चाहता हूँ।
मैं जन्म, जीवन व मृत्यु का आधार चाहता हूँ ।
सत्य का आकाश,
भारत का विकास ,
मानवता का प्रकाश,
और इस धर्मनिरपेक्ष भूमि पर ईश्वर का वास चाहता हूँ।
मैं भारतीयता का सम्मान ,
बहुमुखी संकृति का आंचा,
की सौंधी खुशबु
माता की चरण धूलि चाहता हूँ,
मैं जन्म, जीवन व मृत्यु का आधार चाहता हूँ ।
मैं भारत भूमी पर जन्म बारम्बार चाहता हूँ ।
विश्व का तिलक,
भूमी का आभूषण,
मतृत्व का भूषन,
और भारत का चहुमुखी विस्तार चाहता हूँ ।
मैं जन्म, जीवन व मृत्यु का आधार चाहता हूँ ।
लोगों का कोमल स्नेह,
वृधों का आशीर्वाद,
गॉव की हरियाली,
शहर की आकर,
और भारत माता का प्यार चाहता हूँ ।
हिमालय की ऊंचाई,
मानवता की गहराई,
गंगा की पवित्रता,
आत्म की स्वच्छता,
और भारत भूमि पर जन्म लेकर,
अपना उद्धार चाहता हूँ।
मैं जन्म, जीवन व मृत्यु का आधार चाहता हूँ ।
सत्य का आकाश,
भारत का विकास ,
मानवता का प्रकाश,
और इस धर्मनिरपेक्ष भूमि पर ईश्वर का वास चाहता हूँ।
मैं भारतीयता का सम्मान ,
बहुमुखी संकृति का आंचा,
की सौंधी खुशबु
माता की चरण धूलि चाहता हूँ,
मैं जन्म, जीवन व मृत्यु का आधार चाहता हूँ ।
Sunday, April 8, 2007
देशप्रेम! एक विडम्बना है ।
वह जो भावों से परिपूर्ण भवन के आधार की कल्पना है
आज के युग में आभावों से परिपक्वा मानव की विडम्बना है ।
कण- कण भावहीन है,
फिर भी भावों के प्रभाव का ही नाम जपना है ।
शरीर, मन , आत्म सब परायी है,
केवल धन ही अपना है
भ्रष्टाचार में लिप्त!
आत्म की आवाजों को सुनना, एक पागलपन है ।
सत्य, अहिंसा , प्रेम नही आज के आदर्श,
बल्कि लोभ, लालच और कमाना है।
मन में विदेश सुख की आस है,
और पराया देश ही अपना है ।
ओ ! धनवृष्ती को आतुर नयन,
देशप्रेम केवल एक विडम्बना है।
दिनांक : १३ जून १९९९ ।
आज के युग में आभावों से परिपक्वा मानव की विडम्बना है ।
कण- कण भावहीन है,
फिर भी भावों के प्रभाव का ही नाम जपना है ।
शरीर, मन , आत्म सब परायी है,
केवल धन ही अपना है
भ्रष्टाचार में लिप्त!
आत्म की आवाजों को सुनना, एक पागलपन है ।
सत्य, अहिंसा , प्रेम नही आज के आदर्श,
बल्कि लोभ, लालच और कमाना है।
मन में विदेश सुख की आस है,
और पराया देश ही अपना है ।
ओ ! धनवृष्ती को आतुर नयन,
देशप्रेम केवल एक विडम्बना है।
दिनांक : १३ जून १९९९ ।
मेरा भविष्य !
मेरे मन की अनुभूति,
मेरी आशाओं की रेखाकृती,
सफल मुक्त सा आभास,
मेरी कल्पना, मेरा विश्वास,
यूँही, सपनो के आकाश में,
मिला मैं आज अपने भविष्य से ।
नन्हा सा, कोमल सा,
पलता मेरे मन में ,
जैसे आजन्म शिशु हो मतृ तन में,
ढूँढता - खोजता अपने आकर को,
मन की गहराई में,
लालसा की तनहाई में,
मेरा भविष्य, वो मेरा कल!
आवाज़ में कम्पन,
माथे पे शिकन,
चमकता सर, लटकती उदर,
ढलती उमर, झूलती क़मर ,
ये तो बस एक झलक थी,
और डरने को बहुत था बाकी,
यूँही! मिला मैं आज मिल अपने भविष्य से ।
वोही दिन, वोही रात,
वोही धरती, वोही आकाश,
बस सारी दुनिया ही बदल गयी!
वो बचपन की प्यारी दुनिया,
बस यादों में है हमारी दुनिया ,
यूँही , बस यूँही ।
मेरा बस एक सवाल "क्या तुम खुश हो?",
और जवाब में वो चिन्ता के अम्बार,
आज भी व्याकुल हूँ, कल भी चिंतित होऊंगा ।
मेरा भविष्य मैंने ऐसा तो ना सोचा है ।
यूँही, आज मिल मैं अपने भविष्य से।
दिनांक : ७ मई २००२ ।
मेरी आशाओं की रेखाकृती,
सफल मुक्त सा आभास,
मेरी कल्पना, मेरा विश्वास,
यूँही, सपनो के आकाश में,
मिला मैं आज अपने भविष्य से ।
नन्हा सा, कोमल सा,
पलता मेरे मन में ,
जैसे आजन्म शिशु हो मतृ तन में,
ढूँढता - खोजता अपने आकर को,
मन की गहराई में,
लालसा की तनहाई में,
मेरा भविष्य, वो मेरा कल!
आवाज़ में कम्पन,
माथे पे शिकन,
चमकता सर, लटकती उदर,
ढलती उमर, झूलती क़मर ,
ये तो बस एक झलक थी,
और डरने को बहुत था बाकी,
यूँही! मिला मैं आज मिल अपने भविष्य से ।
वोही दिन, वोही रात,
वोही धरती, वोही आकाश,
बस सारी दुनिया ही बदल गयी!
वो बचपन की प्यारी दुनिया,
बस यादों में है हमारी दुनिया ,
यूँही , बस यूँही ।
मेरा बस एक सवाल "क्या तुम खुश हो?",
और जवाब में वो चिन्ता के अम्बार,
आज भी व्याकुल हूँ, कल भी चिंतित होऊंगा ।
मेरा भविष्य मैंने ऐसा तो ना सोचा है ।
यूँही, आज मिल मैं अपने भविष्य से।
दिनांक : ७ मई २००२ ।
Friday, March 30, 2007
पलकों की पगडंडियों पर |
उमड़ पड़ी है यादें फिर समय सीमायें लाँघ ,
बंद हो पलकें , है मिलन की ये मांग ,
क्योंकि फिर देखा है तुम्हें ,
पलकों की पगडंडियों पर
दबे पैर , हाँथ लिए प्रेम चिराग,
छवि , आहट छेड़ देती है प्रेम राग,
है कदम चूमने को आतुर , उन्मत्त मन,
पलकों की पगडंडियों पर
आज भी तुम भूली नही मेरी पसंद,
तन पर डाले नीली चुनर , गाती हो मंद-मंद ,
सोचा! कर लूँ क़ैद , तुम्हारी जीवित छवि को,
पलकों की पगडंडियों पर
साँझ ढली, आई है लालिमा आंखों में उतर ,
रोक कर रक्त प्रवाह, हृदय की ओर अग्रसर,
प्रेम दिवाकर उदित करने तुम ,
पलकों की पगडंडियों पर
अब व्याकुल हो गया मन मिलन को,
डूबकर आँखों में तुम्हारी,
भूल जाऊं विछोह की तड़पन को,
आ जाऊं त्याग कर देह- संसार,
पथराई पलकों की पगडंडियों पर
फिर! मझधार में चली गयी , छोड़कर तुम ,
साथ निभाने की शपथ, तोड़कर तुम,
स्वप्न टूटा , पलकें खुली ,
तुम हो गई गुम ,
पलकों की पगडंडियों पर
वर्षों बीते तुम्हारी मृत्यु को ,
फिर भी तुम जीवित हो,
मिलन वचनों को निभाती हुई ,
प्रेम आस दृढ़ कराती हुई,
मेरी पलकों की पगडंडियों पर
फिर वही कराहता ज़र्ज़र मन,
सपनों में ढूँढता अपनापन ,
आश्रू प्रवाह में डूबती पलकें ,
आस लगाए, तुम फिर आओगी ,
पलकों की पगडंडियों पर
-------दिनांक : २९ जून 2000
बंद हो पलकें , है मिलन की ये मांग ,
क्योंकि फिर देखा है तुम्हें ,
पलकों की पगडंडियों पर
दबे पैर , हाँथ लिए प्रेम चिराग,
छवि , आहट छेड़ देती है प्रेम राग,
है कदम चूमने को आतुर , उन्मत्त मन,
पलकों की पगडंडियों पर
आज भी तुम भूली नही मेरी पसंद,
तन पर डाले नीली चुनर , गाती हो मंद-मंद ,
सोचा! कर लूँ क़ैद , तुम्हारी जीवित छवि को,
पलकों की पगडंडियों पर
साँझ ढली, आई है लालिमा आंखों में उतर ,
रोक कर रक्त प्रवाह, हृदय की ओर अग्रसर,
प्रेम दिवाकर उदित करने तुम ,
पलकों की पगडंडियों पर
अब व्याकुल हो गया मन मिलन को,
डूबकर आँखों में तुम्हारी,
भूल जाऊं विछोह की तड़पन को,
आ जाऊं त्याग कर देह- संसार,
पथराई पलकों की पगडंडियों पर
फिर! मझधार में चली गयी , छोड़कर तुम ,
साथ निभाने की शपथ, तोड़कर तुम,
स्वप्न टूटा , पलकें खुली ,
तुम हो गई गुम ,
पलकों की पगडंडियों पर
वर्षों बीते तुम्हारी मृत्यु को ,
फिर भी तुम जीवित हो,
मिलन वचनों को निभाती हुई ,
प्रेम आस दृढ़ कराती हुई,
मेरी पलकों की पगडंडियों पर
फिर वही कराहता ज़र्ज़र मन,
सपनों में ढूँढता अपनापन ,
आश्रू प्रवाह में डूबती पलकें ,
आस लगाए, तुम फिर आओगी ,
पलकों की पगडंडियों पर
-------दिनांक : २९ जून 2000
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